मंगलवार, 10 जनवरी 2012

लंका की हसीन षाम




काषी में अगर अस्सी की षाम प्रसिद्ध है तो लंका की षाम भी कम रंगीन नहीं है। जी हां यहां कि एक षाम के लिए लोग अपने जीवन तक को कुर्बान करने को तैयार रहते हैं। युवाओं में तो लंका की षाम का जादू सर चढ़कर बोलता हीं है। वृद्ध भी लंका भ्रमण के मोह को त्याग नहीं पाते। लंकेटिंग के षाम के षौकिन षहर के चाहे किसी भी भाग में हों षाम को लंका दर्षन के मोह को नहीं त्याग पाते हैं। यह भी देखा गया है कि लंकेटिंग के षौकिन पति या पत्नी अपने हमसफर को छोड़कर चुपके से लंका भ्रमण को निकल पड़ते हैं।
आपके मन में प्रष्न उठ सकता है कि आखिर ऐसा क्या है लंका की षाम में जो लोग इसके दीवाने होते हैं तो इसका उत्तर यह है यह अनुभव का विषय है षब्द उसकी महिमा को वर्णन करने में असमर्थ है, षब्द वहां के सौन्दर्य का वर्णन करने में असमर्थ है। लंका की दीवानगी लोगों में ऐसी होती है कि औरतें इसे अपना सौतन समझ बैठती है। मेरा तो यहां तक कहना है कि जिसने लंकेटिंग नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ है। उसका दुनिया भर की टूर का कोई अर्थ नहीं।
जिसने लंकेटिंग नहीं किया वह लंकेटिंग के सुख को क्या जाने। वो क्या जाने लंका जाना गोवा के किसी पिकनिक स्पॉट जाने से कम नहीं है। वो क्या जाने कि यहां के षाम का दृष्य किसी हसीन वादियों से कम नहीं। मेरी तो इच्छा है कि जीवन की अंतीम सांस भी लंका पर किसी परी को निरेखते हुए गुजरे।
वैसे तो मुझे विष्वविद्यालय छोड़े एक दषक से काफी समय हो गया है लेकिन मन अभी भी लंका की वादियों में कहीं विचरण करता है। बिद्यार्थी जीवन में सड़कछाप कमेंट में जो आनंद था वह वीवी के प्याार में कहां। बीवी तो जमा धन है जबकि लंका पर भ्रमण करती नवयौवना बहता हुआ स्रोत है। जिसे देखकर हीं बंदा ओतप्रोत है।
दोस्तों के साथ सड़क छाप कमेंट छोड़ना किसी अलौकिक सुख से कम नहीं है। सीधे सपाट लोग इस सुख को क्या जाने। वे तो स्वच्छंदता के सुख को क्या जाने। वो तो अपना जीवन यहीं सोचने में गुजार देते हैं कि भला लोग क्या कहेंगंे या सोंचेंगे। मेरी सलाह माने तो चुपके से गंगा स्नान कर आएं वरना पछताने सिवा कुछ हाथ नहीं आएगा। जीवन का असली सुख तो लोकलाज की परवाह नहीं करने वाला को मिलता है।
पढ़ाई के दिनों में मैं और मेरी मित्रमंडली लंकेटिंग की दीवानी थी। हमलोगों का लंका जाना दिनचर्या में षुमार था। किसी कारणवष अगर हमलोग लंका नहीं जा पाते तो सबकुछ खोया-खोया सा लगता था। लगता जैसे जीवन का कोई अर्थ नहीं था। जीवन में कोई रस हीं नहीं है रावण को भी षायद अपनी लंका उतनी प्यारी नहीं होगी जितना प्यार हमलोगों को अपनी लंका से था। लंकेटिंग के रूप में हमलोगों को जीवन का उद्देष्य मिल गया था। क्लास करने तो हमलोग मजबूरी में जाते थे लेकिन लंका में तो हमलोगों की जान बसती थी।
लंका के प्रति हमलोगों की दीवानीगी में हम लोगों का कोई हाथ नहीं था बल्कि लंका की वादियों का यह कमाल था। मैंने यह अनुभव किया कि महामना के इस तपोस्थली में प्रवेष लेते हीं छात्रों में अदम्य साहस, धैर्य एवं बल का उदय हो जाता है। वे अपने को तीसमार खां समझने लगते हैं। वे दूसरे लोक में विचरने लगते हैं। यह बात मैं अपने में आई अलौकिक षक्ति के आधार पर कह रहा हूं। कुछ में  सौन्दर्यबोध बढ़ जाता है। बालाओं को देखकर काव्य की धारा फूट पड़ती है। बहरे सुने मूक पूनी बोले वाली बात आ जाती है। ब्रॉन्डेड कपड़ों का महत्व समझ में आ जाता है।
यह भी समझ में आ जाता है कि पिताजी का बैंक बैलेंस लंकेटिंग के लिए किया था। आखिर माता-पिता को अपने पुत्र का सुख हीं तो सबसेे प्यारा है। पुत्र का अगर दिखावेपन में असली सुख पाता हो तो माता-पिता को क्यों आपत्ति होनी चाहिये। षायद यहीं कारण था कि पिताजी हमसबों को मुंह मांगी रकम भेंज रहे थे और हमलोग भेंजी हुई रकम को  ब्रांडेड कपड़ों पर खर्च कर रहे थे। ताकि हम लोगों की हैसियत कुछ ज्यादा दिखे और बालिकायें हमें प्यार भरी नजरों से निरेखें। दूसरी बात यह थी कि हम लोग पिताजी के इज्जत का ख्याल कर रहे थे। और नहीं चाहते कि उनका लाड़ला किसी से कम दिखे।  पिताजी ने कभी षहर नहीं देखे तो क्या हम लोग तो देखे हैं न। वे षहरों के रहन-सहन से परिचित नहीं थे तो क्या हुआ हमलोगों को तो षहरांे का रहन-सहन मालूम है न। जीवन बहुत कुछ नया हो रहा था नए मित्र बन रहे थे। नए गर्लफ्रेंड बन रही थी।  तब भी हमलोग पिताजी द्वारा बताये गये समय के महत्व को भूले नहीं थे। हमलोग समय के इतने पाबंद थे कि 6 बजे लंका पर जाने से कोई माई का लाल हमें नहीं रोक सकता था। बारीष तूफान एवं परीक्षा जैसी बाधायें हमारी रास्ता नहीं रोक पाती। या किसी परिचित की षादी- व्याह या बीमारी जैसी बाधा।
एक हसीन षाम जब हमलोग हॉस्टल से निकलकर
 पिया मिलन चौराहे से गुजर रहे थे। तभी देखते हैं कि कुछ हमारे सहपाठी पुलिसवालों के सामने उठक- बैठक कर रहे हैं। सहसा तो यह यकीन नहीं हुआ। लगा कि हमलोग सपना देख रहे हैं। क्योंकि ये वीर बहादुर तो ऐसा कर हीं नहीं सकते हैं। ये मर जाएंगे लेकिन किसी के सामने उठक-बैठक नहीं करेंगे।  मैं उनको बहादुर मानता था। क्योंकि उनकी बातों एवं हाव-भाव से ऐसा लगता कि वे वाकई मर्द हैं। वे मर मिंटेंगे लेकिन झूकेंगे नहीं। मुझे यह भी लगता कि देष में जब तक ऐसे रणवाकुरे रहेंगे देष को चीन एवं पाकिस्तान से डरने की आवष्यकता नहीं है। देष चीन की अतिक्रमण एवं पाकिस्तान के हरकतों को नजरअदंाज कर सकता है। मन में आया षायद इसी से भारत सरकार इन देषों के नापाक हरकतों को गंभीरता से नहीं लेती। क्योंकि ये रणवाकुरे जब चाहें उनकी नापाक हरकतों का मुंहतोड़ जबाब दे सकतें है। उनमें जवानी का जोष ऐसा था कि वे दीवाल ढाहते चलते। मतलब कि जब वे चल रहे हों और दीवाल सामने आ जाएगी तो वे उससे बचकर नहीं निकलेंगे बल्कि उसे अपने बाहुबल से गिरा देंगे। किसी रिक्षेवाले को मारे जोष के लतिया देंगे। आखिर वो जवानी -जवानी नहीं जिसकी कोई कहानी न हो। इन्हें देखकर मुझे समझ में आ गया था ऐसे हीं युवकों के चलते यह कहा जाता है कि किसी भी राष्ट के तरक्की का दायित्व युवकों के कंधों पर होता है। ऐसे जवानी का क्या अर्थ जो किसी पानवाले को हड़काया न हो किसी चायवाले को गरियाया न हो।
 ऐसी दषा में उन्हें देखा तो दिल को बड़ी राहत मिली कि आखिरकार उंट आया तो पहाड़ के नीचे। कमसे कम ये लोग तो हमलोगों के सामनें षेखी नहीं बघारेंगे। हमलोग का दिल इस कहानी को उपन्यास बनाने के लिए बैचैन हो उठा। मन किया कि लंकेटिंग के टूर को बीच में हीं स्थगित कर इस कहानी को मित्रों से षेयर करें। लेकिन विधाता को तो कुछ और मंजूर था। बस एक दुर्घटना ने सबकुछ बदलकर रख दिया। प्रिय मित्रों ने उठक-बैठक करते हुए हमलोगों की ओर कातर नजरों से देखना जारी रखा। बस क्या था हमलोगों को दया आ गयी और हमलोगों कैंपस प्रवेष कर गये। फिर क्या था पुलिस वाले उन्हें छोड़कर हमलोगों को उठक- बैठक कराने लगे।  और उठक-बैठक करने वाले प्यारे मित्र मुस्कुराने लगे और हम षर्माने लगे।
इस एक दुर्घाटना ने भविष्य में मिलने वाले सारे सुख पर पानी फेर दिया। कहा भी गया है कि सावधानी हटी की दुर्घटना घटी। हमलोगों को यह भी समझ में आ गया बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय। अगर हम लोग इस कहावत पर ध्यान दिए होते तो निंदा रस से मिलने वाले सुख से वंचित नहीं होते। आखिर जीवन का वास्तविक सुख दुसरे की निंदा में हींे तो छुपा हैै।
हमलोगों को इस कहानी को सुनाने के लिए मन में कचोट उठती लेकिन किस मंुह से यह कहानी दूसरों को सुनाते क्योंकि हमलोग स्वयं भी तो उठक-बैठक किये थे।
कहानी सुनाने का अवसर हाथ से नहीं लगने के बाद हमलोगों ने प्यारे मित्रों से उनकी कहानी सुनाना हीं बेहतर समझे कि क्यों उन्हें उठक-बैठक करनी पड़ी।
वे अपनी कहानी इस प्रकार सुनाये। उन्होंने कहा कि हमलोग हॉस्टल के कैंपस में प्रवेष कर अभी अपने प्रेमी युगलों के साथ जीने मरने की कसमें  खा हीं रहे थे कि पुलिस आ गयी। बस हमारी गर्लफ्रेंड हॉस्टल के कमरे में चली गई। और पुलिस वाले हमलोगों से उठक-बैठक कराने लगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. शाम या षाम
    षमझने की कोशिष कर रहा हूँ.

    गोपाल जी मेरे ब्लॉग पर जब षमय
    मिले तो आईयेगा.

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  2. Mai krutidev 1o mein likhkar unicode mein badlata hun lekin is kram mein श ष mein badal jata hai. isse bachne ka kripaya upay batayein.

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